सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
सुरेन्द्रेति॥ गृहागतो नृपः सुरेन्द्राणां लोकपालानां मात्राभिरंशैराश्रितस्यानुप्रविष्टस्य गर्भस्य गौरवाद्भारात् प्रयत्नेन मुक्तासनया। आसनादुत्थितयेत्यर्थः। उपचारस्याञ्जलावञ्जलिकरणे खिन्नहस्तया पारिप्लवनेत्रया तरलाक्ष्या। चञ्चलं तरलं चैव पारिप्लवपरिप्लवे
इत्यमरः। तया सुदक्षिणया ननन्द। सुरेन्द्रमात्राश्रित-
इत्यत्र मनुः(५।९६)- अष्टाभिश्च सुरेन्द्राणां मात्राभिर्निर्मितो नृपः
इति ॥
छन्दः
वंशस्थम् [१२: जतजर]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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सु | रे | न्द्र | मा | त्रा | श्रि | त | ग | र्भ | गौ | र | वा |
त्प्र | य | त्न | मु | क्ता | स | न | या | गृ | हा | ग | तः |
त | यो | प | चा | रा | ञ्ज | लि | खि | न्न | ह | स्त | या |
न | न | न्द | पा | रि | प्ल | व | ने | त्र | या | नृ | पः |
ज | त | ज | र |