सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
प्रदक्षिणीकृत्येति॥ नृपो हुतं तर्पितम्। हुतमश्नातीति हुताशोऽग्निः। कर्मण्यण्
(अष्टाध्यायी ३.२.१२ ) । तं भर्तुर्मुनेरनन्तरम्। प्रदक्षिणानन्तरमित्यर्थः। अरुन्धतीं च सवत्सां धेनुं च प्रदक्षिणीकृत्य । प्रगतो दक्षिणं प्रदक्षिणम्। तिष्ठद्गुप्रभृतीनि च
(अष्टाध्यायी २.१.१७ ) इत्यव्ययीभावः। ततश्चिवः। अप्रदक्षिणं प्रदक्षिणं संपद्यमानं कृत्वा प्रदक्षिणीकृत्य। सद्भिर्मङ्गलैः प्रदक्षिणादिभिर्मङ्गलाचारैरुदग्रतरप्रभावः सन्। प्रतस्थे ॥
छन्दः
उपेन्द्रवज्रा [११: जतजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ |
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प्र | द | क्षि | णी | कृ | त्य | हु | तं | हु | ता | श |
म | न | न्त | रं | भ | र्तु | र | रु | न्ध | तीं | च |
धे | नुं | स | व | त्सां | च | नृ | पः |
प्र | त | स्थे | स | न्म | ङ्ग | लो | द | ग्र | त | प्र | भा | वः |
ज | त | ज | ग | ग |