सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
प्रातरिति॥ वशी वसिष्ठः प्रातः। यथोक्तस्य पूर्वोक्तस्य व्रतस्य गोसेवारूपस्याङ्गभूता या पारणा तस्या अन्ते प्रास्थानिकं प्रस्थानकाले भवम्। तत्कालोचितमित्यर्थथः। कालाट्टञ्
(अष्टाध्यायी ४.३.११ ) इति ठञ्प्रत्ययः। यथाकथंचिद्गुणवृत्त्यापि काले वर्तमानत्वात्तत्प्रत्यय इष्यते
इति वृत्तिकारः। ईयते प्राप्यतेऽनेनेत्ययनं स्वस्त्ययनं शुभावहमाशीर्वादं प्रयुज्य । तौ दंपती स्वां राजधानीं पुरीं प्रति प्रस्थापयामास ॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
---|
प्रा | त | र्य | थो | क्त | व्र | त | पा | र | मा | न्ते |
प्रा | स्था | नि | कं | स्व | स्त्य | य | नं | प्र | यु | ज्य |
तौ | दं | प | ती | स्वां | प्र | ति | रा | ज | धा | नीं |
प्र | स्था | प | या | मा | स | व | शी | व | सि | ष्ठः |
त | त | ज | ग | ग |