कपौ सिंहे सुवर्णे च वर्णे विष्णौ हरिं विदुः
इति शाश्वतः। सद्यस्तत्क्षणे प्रतिष्टम्भात्प्रतिबन्धाद्विमुक्तो बाहुर्यस्य सः। दिलीपः। न्यस्तशस्त्त्रस्त्यक्तायुधः सन्। स्वदेहं, आमिषस्य मांसस्य, पललं क्रव्यमामिषम्
इत्यमरः (अमरकोशः २.६.६३ ) । पिण्डं कवलमिव। उपानयत् समर्पितवान्। एतेन निर्ममत्वमुक्तम्॥
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त | थे | ति | गा | मु | क्त | व | ते | दि | ली | पः |
स | द्यः | प्र | ति | ष्ट | म्भ | वि | मु | क्त | बा | हुः |
स | न्न्य | स्त | श | स्त्त्रो | ह | र | ये | स्व | दे | ह |
मु | पा | न | य | त्पि | ण्ड | मि | वा | मि | ष | स्य |