सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
संबन्धमिति॥ संबन्धं सख्यम्। आभाषणमालापः पूर्वं कारणं यस्य तमाहुः। स्यादाभाषणमालापः
इत्यमरः (अमरकोशः १.६.१५ ) । स तादृक्संबन्धो वनान्ते संगतयोर्नावावयोर्वृत्तो जातः। तत्ततो हेतोर्हे भूतनाथानुग शिवानुचर!। एतेन तस्य महत्त्वं सूचयति। अत एव संबन्धिनो मित्रस्य मे प्रणयं याञ्चाम्। प्रणयास्त्मी। विश्रम्भयाञ्चाप्रेमाणः
इत्यमरः (अमरकोशः १.६.१५ ) । विहन्तुं नार्हसि ॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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सं | ब | न्ध | मा | भा | ष | ण | पू | र्व | मा | हु |
र्वृ | त्तः | स | नौ | सं | ग | त | यो | र्व | ना | न्ते |
त | द्भू | त | ना | था | नु | ग | ना | र्ह | सि | त्वं |
सं | ब | न्धि | नो | मे | प्र | ण | यं | वि | ह | न्तुम् |
त | त | ज | ग | ग |