परतन्त्त्रः पराधीनः परवान्नाथवानपि
इत्यमरः (अमरकोशः ३.३.२७२ ) । इदं वक्ष्यमाणमवैति। भवतानुभूयत एवेत्यर्थः। शेषे प्रथमः
(अष्टाध्यायी १.४.१०८ ) इति प्रथमपुरुषः। किमित्यत आह-हि यस्माद्धेतोः, हि हेताववधारणे
इत्यमरः (अमरकोशः ३.३.२७२ ) । तव देवदारौ विषये महान् यत्नः। महता यत्नेन रक्ष्यत इत्यर्थः। इदंशब्दोक्तमर्थं दर्शयति-स्थातुमिति॥ रक्ष्यं वस्तु विनाश्य विनाशं गमयित्वा स्वयमक्षतेनाव्रणेन। नुयुक्तेनेति शेषः। नियोक्तुः स्वामि नोऽग्रे स्थातुं शक्यं न हि ॥
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भ | वा | न | पी | दं | प | र | वा | न | वै | ति |
म | हा | न्हि | य | त्न | स्त | व | दे | व | दा | रौ |
स्था | तुं | नि | यो | क्तु | र्न | हि | श | क्य | म | ग्रे |
वि | ना | श्य | र | क्ष्यं | स्व | य | म | क्ष | ते | न |