एरच्
(अष्टाध्यायी ३.३.५६ ) इत्यच्प्रत्ययः। स्वदेहार्पणमेव निष्क्रयस्तेन भवत्तस्त्वत्तः। पञ्चम्यास्तसिल्। मोचयितुं न्याय्या न्यायादनपेता। युक्तेत्यर्थः। धर्मपथ्यर्थं-
(अष्टाध्यायी ४.४.९२ ) इत्यादिना यत्प्रत्ययः। एवं सति तव पारणा भोजनं विहता न स्यात्। मुनेः क्रिया होमादिः स एवार्थः प्रयोजनम्। स चालुप्तो भवेत्। स्वप्राणब्ययेनापि स्वामिगुरुधनं संरक्ष्यमिति भावः॥
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से | यं | स्व | दे | हा | र्प | ण | नि | ष्क्र | ये | ण |
न्या | य्या | म | या | मो | च | यि | तुं | भ | व | त्तः |
न | पा | र | णा | स्या | द्वि | ह | ता | त | वै | वं |
भ | वे | द | लु | प्त | श्च | मु | नेः | क्रि | या | र्थः |