क्षणु हिंसायाम्
इति धातोः संपदादित्पात्क्विप्। गमादीनाम्
(वा.४०७३) इति वक्तव्यादनुनासिकलोपे तुगागमे च क्षदिति रूपं सिद्धम्। क्षतो नाशात्त्रायत इति क्षत्त्रः। सुपि-
(अष्टाध्यायी ३.२.४ ) इति योगविभागात्कः। तामेतां व्युत्पत्तिं कविरर्थतोऽनुक्रामति-क्षतादित्यादिना। उदग्र उन्नतः क्षत्त्रवर्णस्य शब्दो वाचकः। क्षत्त्रशब्द इत्यर्थः। क्षतात्त्रायत इति व्युत्पत्त्या भुवनेषु रूढः किल प्रसिद्धः। खलु। नाश्वकर्णादिवत्केवलरूढः किंतु पङ्कजादिवद्योगरूढ इत्यर्थः। ततः किमित्य आह-तस्यक्षत्त्र
शब्दस्य विपरीतवृत्तेर्विरुद्धव्यापारस्य क्षतस्त्राणमकुर्वतः पुंसो राज्येन किम्? उपक्रोशमलीमसैर्निन्दामलिनैः। उपक्रोशोजुगुप्सा च कुत्सा निन्दा च गर्हणे
इत्यमरः। ज्योत्स्नातमिस्रा-
(अष्टाध्यायी ५.२.११४ ) इत्यादिना मलीमैस
शब्दो निपातितः। मलीमसं तु मलिनं कञ्चरं मलदूषितम्
इत्यमरः। तैः प्राणैर्वा किम्? निन्दितस्य सर्वं व्यर्थमित्यर्थः। एतेन एकातपत्रम्
(२।४७)इत्यादिना श्लोकद्वयेनोक्तं प्रत्युक्तमिति वेदितव्यम् ॥
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क्ष | ता | त्कि | ल | त्रा | य | त | इ | त्यु | द | ग्रः |
क्ष | त्त्र | स्य | श | ब्दो | भु | व | ने | षु | रू | ढः |
रा | ज्ये | न | किं | त | द्वि | प | री | त | वृ | त्तेः |
प्रा | णै | रु | प | क्रो | श | म | ली | म | सै | र्वा |