बहुव्रीहौ सक्थ्यक्ष्णोः स्वाङ्गात्षच्
(अष्टाध्यायी ५.४.११३ ) इति षच्। षिद्गौरादिभ्यश्च
(अष्टाध्यायी ४.१.४१ ) इति ङीष्। किंवा वक्ष्यति
इति मीत्यैवं स्थितयेत्यर्थः। धेन्वा निरीक्ष्यमाणः। अत एव सुतरां दयालुः सन्। सुतराम्
इत्यत्र द्विवचनविभज्य-
(अष्टाध्यायी ४.१.४१ ) इत्यादिना सुशब्दात्तरप्। किमेत्तिङव्यय-
(अष्टाध्यायी ५.४.११ ) इत्यादिनाम्प्रत्ययः। तद्धितश्चासर्वविभक्तिः
(अष्टाध्यायी १.१.३८ ) इत्यव्ययसंज्ञा ॥
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नि | श | म्य | दे | वा | नु | च | र | स्य | वा | चं |
म | नु | ष्य | दे | वः | पु | न | र | प्यु | वा | च |
धे | न्वा | त | द | ध्या | सि | त | का | त | रा | क्ष्या |
नि | री | क्ष्य | मा | णः | सु | त | रां | द | या | लुः |