सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
एतावदिति॥ मृगेन्द्र एतावदुक्त्वा विरते सति गुह्नागतेनास्य सिंहस्य प्रतिस्वनेन शिलोञ्चयः शैलोऽपि प्रीत्या तमेवार्थँ क्षितिपालमुञ्चैरभाषतेव। इत्युत्प्रेक्षा। भाषिरयं ब्रुविसमानार्थत्वाद्दिकर्मकः। ब्रुविस्तु द्विकर्मकेषु पठितः। तदुक्तम्-दुहियाचिरुधिप्रच्छिभिक्षिचिञामुपयोगनिमित्तमपूर्वविधौ। ब्रुविशासिगुणेन च यत्सचते तदकीर्तितमाचरितं कविना ॥
इति ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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ए | ता | व | दु | क्त्वा | वि | र | ते | मृ | गे | न्द्रे |
प्र | ति | स्व | ने | ना | स्य | गु | हा | ग | ते | न |
शि | लो | ञ्च | यो | ऽपि | क्षि | ति | पा | ल | मु | ञ्चैः |
प्री | त्या | त | मे | वा | र्थ | म | भा | ष | ते | व |