ज्योत्स्नातमिस्रा-
(अष्टाध्यायी ५.२.११४ ) इत्यादिना बलच्प्रत्ययान्तो निपातः। आत्मदेहं रक्ष। ननु गामुपेक्ष्यात्मदेहरक्षणे स्वर्गहानिः स्यात्। नेत्याह-महीतलेति। ऋद्धं समृद्धं राज्यं महीतलस्पर्शनमात्रेण भूतलसंबन्धमात्रेण भिन्नमैन्द्रमिन्द्रसंबन्धि पदं स्थानमाहुः। स्वर्गान्न भिद्यत इत्यर्थः॥
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त | द्र | क्ष | क | ल्या | ण | प | र | म्प | रा | णां |
भो | क्ता | र | मू | र्ज | स्व | ल | मा | त्म | दे | हम् |
म | ही | त | ल | स्प | र्श | न | मा | त्र | भि | न्न |
मृ | द्धं | हि | रा | ज्यं | प | द | मै | न्द्र | मा | हुः |