सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
संरुद्धेति॥ हे मृगेन्द्र! संरुद्धचेष्टस्य प्रतिबद्धव्यापारस्य मम तद्वचोवाक्यं कामं हास्यं परिहसनीयम्। यद्वचः स त्वं मदीयेन
(२।४५) इत्यादिकमहं विवक्षुर्वक्तुमिच्छुरस्मि। तर्हि तूष्णीं स्थीयतामित्याशङ्क्येश्वरकिंकरत्वात्सर्वज्ञं त्वां प्रति न हास्यमित्याह-अन्तरिति। हि यतो भवान् प्राणभृतामन्तर्गतं हृद्गतं वाग्वृत्त्या बहिरप्रकाशितमेव सर्वं भावं वेद वेत्ति। विदो लटो वा
(अष्टाध्यायी ३.४.८३ ) इति णलादेशः। अतोऽभिधास्ये वक्ष्यामि। वच इति प्रकृतं कर्म संबध्यते। अन्ये त्वीदृग्वचनमाकर्ण्यासंभावितार्थमेतदित्युपहसन्ति। अतस्तु मौनमेव भूषणम्। त्वं तु वाङ्मनसयोरेकविध एवायमिति जानासि। अतोऽभिधास्ये यद्वचोऽहं विवक्षुरित्यर्थः॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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सं | रु | द्ध | चे | ष्ट | स्य | मृ | गे | न्द्र | का | मं |
हा | स्यं | व | च | स्त | द्य | द | हं | वि | व | क्षुः |
अ | न्त | र्ग | तं | प्रा | ण | भृ | तां | हि | वे | द |
स | र्वं | भ | वा | न्भा | व | म | तो | ऽभि | धा | स्ये |
त | त | ज | ग | ग |