सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
मान्य इति॥ प्रत्यवहारः प्रलयः। स्थावराणां तरुशैलादीनां जंगमानां मनुष्यादीनां सर्गस्थितिप्रत्यवहारेषु हेतुः स ईश्वरो मे मम मान्यः पूज्यः। अलङ्घ्यशासन इत्यर्थः। शासनं च सिंहत्वमङ्कागतसत्त्ववृत्ति
(२।३८) इत्युक्तरूपम्। तर्हि विसृज्य गम्यताम्; नेत्याह-गुरोरपीति। पुरस्तादग्रे नश्यदिदमाहिताग्नेगुरोर्धनमपि गोरूपमनुपेक्षणीयम्। आहिताग्नेः
इति विशेषणेनानुपेक्षाकारणं हविः साधनत्वं सूचयति॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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मा | न्यः | स | मे | स्था | व | र | जं | ग | मा | नां |
स | र्ग | स्थि | ति | प्र | त्य | व | हा | र | हे | तुः |
गु | रो | र | पी | दं | ध | न | मा | हि | ता | ग्ने |
र्न | श्य | त्पु | र | स्ता | द | नु | पे | क्ष | णी | यम् |