सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
व्रतायेति॥ व्रताय धेरोरनुचरेण। न तु जीवनायेति भावः। तेन दिलीपेन शेषोऽवशिष्टोऽप्यनुयायिवर्गोऽनुचरवर्गो न्यषेधि निवर्तितः। शेषत्वं सुदक्षिणापेक्षया। कथं तर्ह्यात्मरक्षणमत आह-न चेति। तस्य दिलीपस्य शरीररक्षा चान्यतः पुरुषान्तरान्न। कुतः? हि यस्मात्कारणान्मनोः। प्रसूयत इति प्रसूतिः संततिः स्ववीर्यगुप्ता स्ववीर्येणैव रक्षिता। न हि स्वनिर्वाहकस्य परापेक्षेति भावः ॥
छन्दः
उपेन्द्रवज्रा [११: जतजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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व्र | ता | य | ते | ना | नु | च | रे | ण | धे | नो |
र्न्य | षे | धि | शे | षो | ऽप्य | नु | या | यि | व | र्गः |
न | चा | न्य | त | स्त | स्य | श | री | र | र | क्षा |
स्व | वी | र्य | गु | प्ता | हि | म | नोः | प्र | सू | तिः |
ज | त | ज | ग | ग |