सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
अमुमिति॥ पुरोऽग्रतोऽग्रतोऽमुं देवदारुं पश्यसि। इति काकुः। असौ देवदारुः। वृषभो ध्वजे यस्य स तेन शिवेन पुत्रीकृतः पुत्रत्वेन स्वीकृतः। अभूततद्भावे च्विः। यो देवदारुः स्कन्दस्य मातुर्गौर्या हेम्नः कुम्भ एव स्तनः तस्मान्निःसृतानां पयसामम्बूनां रसज्ञः स्वादज्ञः। स्कन्दपक्षे, -हेमकुम्भ इव स्तन इति विग्रहः। पयसां क्षीराणाम्। पयः क्षीरं पयोऽम्बु च
इत्यमरः। स्कन्दसमानप्रेमास्पदमिति भावः ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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अ | मुं | पु | रः | प | श्य | सि | दे | व | दा | रुं |
पु | त्री | कृ | तो | ऽसौ | वृ | ष | भ | ध्व | जे | न |
यो | हे | म | कु | म्भ | स्त | न | निः | सृ | ता | नां |
स्क | न्द | स्य | मा | तुः | प | य | सां | र | स | ज्ञः |