पदास्वैरिबाह्यापक्ष्येषु च
(अष्टाध्यायी ३.१.११९ ) इति क्यप्। मनुवंशस्य केतुं चिह्नं केतुवद्व्यावर्तकम्। सिंह इवोरुसत्त्वो महाबलस्तम्। आत्मनो वृत्तौ बाहुस्तम्भरूपे व्यापारेऽभूतपूर्वत्वाद्विस्मितम्। कर्तरि क्तः। तं दिलीपं मनुष्यवाचा करणेन। पुनर्विस्माययन् स्मयमाश्चर्यं प्रापयन्निजगाद। स्मिङ् ईषद्धसने
इति धातोर्णिचि वृद्धावायादेशे शतृप्रत्यये च सति विस्माययन्निति रूपं सिद्धम्। विस्मापयन्
इति पाठे पुगागममात्रं वक्यव्यम्। तञ्च नित्यं स्मयतेः
(अष्टाध्यायी ६.१.५७ ) इति हेतुभयविवक्षायामेवेति भीस्म्योर्हेतुभये
(अष्टाध्यायी १.३.६८ ) इत्यात्मनेपदे विस्मापयमान इति स्यात्। तस्मान्मनुष्यवाचा विस्माययन्निति रूपं सिद्धम्। करणविवक्षायां न कश्चिद्दोषः॥
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त | मा | र्य | गृ | ह्यं | नि | गृ | ही | त | धे | नु |
र्म | नु | ष्य | वा | चा | म | नु | वं | श | के | तुम् |
वि | स्मा | य | य | न्वि | स्मि | त | मा | त्म | वृ | त्तौ |
सिं | हो | रु | स | त्त्वं | नि | ज | गा | द | सिं | हः |