भार्या जायाथ पुं भूम्नि दाराः
इत्यमरः। पादौ निपीड्याभिवन्द्य। सांध्यं संध्यायां विहितं विधिननुष्ठानं च समाप्य। दोहावसाने निषण्णामासीनां दोग्ध्रीं दोहनशीलम्। तृन्
(अष्टाध्यायी ३.२.१३५ ) इति तृन्प्रत्ययः। धेनुमेव पुनर्भेजे सेवितवान्। दोग्ध्रीम्
इति निरुपपदप्रयोगात्कामधेनुत्वं गम्यते ॥
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गु | रोः | स | दा | र | स्य | नि | पी | ड्य | पा | दौ |
स | मा | प्य | सां | ध्वं | च | वि | धिं | दि | ली | पः |
दो | हा | व | सा | ने | पु | न | रे | व | दो | ग्ध्रीं |
भे | जे | भु | जो | च्छि | न्न | रि | पु | र्नि | ष | ण्णाम् |