सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
प्रदक्षिणीकृत्येति॥ अक्षतानां पात्रेण सह वर्तेते इति साक्षतपात्रौ ह्रस्तौ यस्याः सा सुदक्षिणा पयस्विनीं प्रशस्तक्षीरां तां धेनुं प्रदक्षिणीकृत्य प्रणम्य च। अस्याः धेन्वा विशालं शृङ्गमध्यम्। अर्थसिद्धेः कार्यसिद्धेर्द्वारं प्रवेशमार्गमिव। आनर्चार्चयामास, अर्चतेर्भौवादिकाल्लिट्॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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प्र | द | क्षि | णी | कृ | त्य | प | य | स्वि | नीं | तां |
सु | द | क्षि | णा | सा | क्ष | त | पा | त्र | ह | स्ता |
प्र | ण | म्य | चा | न | र्च | वि | शा | ल | म | स्याः |
श्रृ | ङ्गा | न्त | रं | द्वा | र | मि | वा | र्थ | सि | द्धेः |