सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
धनुर्भृत इति॥ धनुर्भृतोऽप्यस्य राज्ञः। एतेन भयसंभावना दर्शिता। तथापि विशङ्कैर्निर्भीकैरन्तः करणैः कर्तृभिः। दयया कृपारसेनार्द्रो भावोऽभिप्रायो यस्य तद्दयार्द्रभावं तदाख्यातम्। दयार्द्रभावमेतदित्याख्यातमित्यर्थः। भावः सत्त्वस्वभावाभिप्रायचेष्टात्मजन्मसु
इत्यमरः। तथाविधं वपुर्विलोकयन्त्यो हरिण्योऽक्ष्णां प्रकामविस्तारस्यात्यन्तविशालतायाः फलमापुः। विमलं कलुषीभवञ्च चेतः कथयत्येव हितैषिणं रिपुं च
इति न्यायेन स्वान्तःकरणवृत्तिप्रामाण्यादेव विश्रब्धं ददृशुरित्यर्थः॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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ध | नु | र्भृ | तो | ऽप्य | स्य | द | या | र्द्र | भा | व |
मा | ख्या | त | म | न्तः | क | र | णै | र्वि | श | ङ्कैः |
वि | लो | क | य | न्त्यो | व | पु | रा | पु | र | क्ष्णां |
प्र | का | म | वि | स्ता | र | फ | लं | ह | रि | ण्यः |