सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
नाभीति॥ युगान्ते कल्पान्त उचिता परिचिता योगाः स्वात्मनिष्ठैव निद्रेव निद्रा यस्य स पुरुषो विष्णुर्लोकान्संहृत्य। नाभ्यां प्ररूढं यदम्बुरुहं पद्मं तदासनेन तन्नाभिकमलाश्रयेण प्रथमेन धात्रा दक्षादीनामपि स्रष्ट्रा पितामहेन संस्तूयमानः सन्। अमुमधिशेते। अमुष्मिञ्धेत इत्यर्थः। कल्पान्तेऽप्यस्तीति भावः ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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ना | भि | प्र | रू | ढा | म्बु | रु | हा | स | ने | न |
सं | स्तू | य | मा | नः | प्र | थ | मे | न | धा | त्रा |
अ | मुं | यु | गा | न्तो | चि | त | यो | ग | नि | द्रः |
सं | हृ | त्य | लो | का | न्पु | रु | षो | ऽधि | शे | ते |