सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
धारेति॥ धारा निर्झरधाराः। यद्वा, -धआरया सातत्येन स्वनोद्गारिदर्येव मुखं यस्य सः। श्रृङ्गं शिखरं विषाणां च तस्याग्रे लग्नोऽम्बुद एव वप्रपङ्को वप्रक्रीडासक्तपङ्को यस्य सः। असौ चित्रकूटो हे बन्धुरगात्रि उन्नतानताङ्गि!बन्धुरं तून्नतानतम्
इत्यमरः (अमरकोशः ३.१.६८ ) । दृप्तः ककुद्मान् वृषभ इव। मे चक्षुर्बध्नात्यनन्यासक्तं करोति ॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
---|
धा | रा | स्व | नो | द्गा | रि | द | री | मु | खो | ऽसौ |
श्रृ | ङ्गा | ग्र | ल | ग्ना | म्बु | ज | व | प्र | प | ङ्कः |
ब | ध्ना | ति | मे | ब | न्धु | र | गा | त्रि | च | क्षु |
र्दृ | प्तः | क | कु | द्मा | नि | व | चि | त्र | कू | टः |
त | त | ज | ग | ग |