सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
छायेति॥ अधुनाऽस्मिन्काले तस्य शरभङ्गस्य संबन्धिन्यतिथीनां सपर्याऽतितिपूजा। पूजा नमस्यापचितिः सपर्यार्चार्हणाः समाः
इत्यमरः (अमरकोशः २.७.३७ ) । छायाभिर्विनीतोऽपनीतोऽध्वपरिश्रमो यैस्तेषु भूयिष्ठानि बहुतमानि संभाव्यानि श्लाघ्यानि फलानि येषां तेष्वमीषु पादपेष्वाश्रमवृक्षेषु सुपुत्रेष्विव स्थिता। तत्पुत्रैरिव पादपैरनुष्ठीयतत इत्यर्थः॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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छा | या | वि | नी | ता | ध्व | प | रि | श्र | मे | षु |
भू | यि | ष्ठ | सं | भा | व्य | फ | ले | ष्व | मी | षु |
त | स्या | ति | थी | ना | म | धु | ना | स | प | र्या |
स्थ | इ | ता | सु | पु | त्रे | ष्वि | व | पा | द | पे | षु |
त | त | ज | ग | ग |