सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
गर्भमिति॥ अर्कमरीचयोऽस्मादब्धेः। अपादानात्। गर्भमम्मयं दधति। वृष्ट्यर्थमित्यर्थः। अयमर्थो दशमसर्गे ताभिर्गर्भः-
(५८)इत्यत्र स्पष्टीकृतः। अयं लोकोपकारीति भावः। अत्राब्धौ वसूनि धनानि। धने रत्ने वसु स्मृतम्
इति विश्वः। विवृद्धिमश्नुवते प्राप्नुवन्ति। संपद्वानित्यर्थः। असौ। आप इन्धनं दाह्यं यस्य तद्दाहकं वह्निं बिभर्ति। अपकारेऽप्याश्रितं न त्यजतीति भावः। अनेन प्रह्लादनमाह्लादकं ज्योतिश्चन्द्रोऽजनि जनितम्। जनेर्ण्यन्तात्कर्मणि लुङ्। सौम्य इति भावः ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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ग | र्भं | द | ध | त्य | र्क | म | री | च | यो | ऽस्मा |
द्वि | वृ | द्धि | म | त्रा | श्नु | व | ते | व | सू | नि |
अ | बि | न्ध | नं | व | ह्नि | म | सौ | बि | भ | र्ति |
प्र | ह्ला | द | नं | ज्यो | ति | र | ज | न्य | ने | न |