सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
गुरोरिति॥ यियक्षोर्यष्टुमिच्छोः। यजेः सन्नन्तादुप्रत्ययः। गुरोः सगरस्य मेध्येऽश्वमेधार्हे तुरंगे ह्रये कपिलेन मुनिना रसातलं पातालं संक्रमित्ते सति। तदर्थमुर्वीमवदारयद्भिः खनद्भिर्नोऽस्माकं पूर्वैर्वृद्धैः सगरसुतैरयं समुद्रः परिवर्धितः किल। किल
इत्यैतिह्ये। अतो न पूज्य इति भावः। यद्यपि तुरंगहारी शतक्रतुस्तथापि तस्य कपिलसमीपे दर्शनात्स एवेति भ्रान्तिः तन्मत्वैव कविना कपिलेनेति निर्दिष्टम् ॥
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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गु | रो | र्यि | य | क्षोः | क | पि | ले | न | मे | ध्ये |
र | सा | त | लं | सं | क्र | मि | ते | तु | रं | गे |
त | द | र्थ | मु | र्वी | म | व | दा | र | य | द्भिः |
पू | र्वैः | कि | ला | यं | प | रि | व | र्धि | तो | नः |