सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
भ्रूमेदेति॥ यो मुनिर्भ्रूभेदमात्रेण भ्रूभङ्गमात्रेणैव नहुषं राजानं मघोनः पदादिन्द्रत्वात्। प्रभ्रंशयां चकार प्रभ्रंशयति स्म। आविलाम्भः परिशुद्धिहेतोः कलुषजलप्रसादहेतोस्तस्य मुनेरगस्त्यस्य। अगस्त्योदये शरदि जलं प्रसीदतीत्यक्तं प्राक्। भूमौ भवो भौमः स्थानपरिग्रह आश्रमोऽयम्। दृश्यत इति शेषः। भौम
इत्यनेन दिव्योऽप्यस्तीत्युक्तम्। परिगृह्यत इति परिग्रहः, स्थानमेव परिग्रह इति विग्रहः ॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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भ्रू | मे | द | मा | त्रे | ण | प | दा | न्म | घो | नः |
प्र | भ्रं | श | यां | यो | न | हु | षं | च | का | र |
त | स्या | वि | ला | म्भः | प | रि | शु | द्धि | हे | तो |
र्भौ | मो | मु | नेः | स्थ | आ | न | प | रि | ग्र | हो | ऽयम् |
त | त | ज | ग | ग |