अनुर्यत्समया
(अष्टाध्यायी २.१.१५ ) इत्यव्ययीभावः। मृगयाया निवृत्तस्तरंगवातेन विनीतखेदो रहो रहसि। अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। त्वदुत्सङ्गनिषण्णमूर्धा सन्नहं वानीरगृहेषु सुप्तः स्मरामि। वाक्यार्थः कर्म। सुप्त इति यत्तत्स्मरामीत्यर्थः ॥
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अ | त्रा | नु | गो | दं | मृ | ग | या | नि | वृ | त्त |
स्त | रं | ग | वा | ते | न | वि | नी | त | खे | दः |
र | ह | स्त्व | दु | त्स | ङ्ग | नि | ष | ण्ण | मू | र्धा |
स्म | रा | मि | वा | नी | र | गृ | हे | षु | सु | प्तः |