सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
वैदेहीति॥ हे वैदेहि सीते! आ मलयान्मलयपर्यन्तम्। पञ्चम्यपाङ्परिभिः
(अष्टाध्यायी २.३.१० ) इति पञ्चमी। पदद्वयं चैतत्। मत्सेतुना विभक्तं द्विधा कृतम्। अत्यायतसेतुनेत्यर्थः। हर्षाधिक्याञ्च मद्ग्रहणम्। फेनिलं फेनवन्तम्। फेनादिलञअच
(अष्टाध्यायी ५.२.९९ ) इतीलच्प्रत्ययः। क्षिप्रकारी चायमिति भावः। अम्बुराशिम्। छायापथेन विभक्तं शरत्प्रसन्नमाविष्कृतचारुतारमाकाशमिव। पश्य। मम महानयं प्रयासस्त्वदर्थं इति हृदयम्। छायापथो नाम ज्योतिश्चक्रमध्यवर्ती कश्चित्तिरश्चीनोऽवकाशः ॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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वै | दे | हि | प | श्या | ऽऽम | ल | या | द्वि | भ | क्तं |
म | त्से | तु | ना | फे | नि | ल | म | म्बु | रा | शिम् |
छा | या | प | थे | ने | व | श | र | त्प्र | स | न्न |
मा | का | श | मा | वि | ष्कृ | त | चा | रु | ता | रम् |
त | त | ज | ग | ग |