सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
करेणेति॥ हे चण्डि कोपने!चण्डस्त्वत्यन्तकोपनः
इत्यमरः (अमरकोशः ३.१.३२ ) । कुतूहलिन्या विनोदार्थिन्या त्वया कर्त्र्या वातायने गवाक्षे लम्बितेनावस्रंसितेन करेण स्पृषअट उद्भइन्नविद्युद्वलयो घनस्ते द्वितीयमाभरणं वलयमामुञ्चतीवार्पयतीव। चण्डि
इत्यनेन कोपनशीलत्वाद्भीतः क्षिप्रं त्वां मुञ्चति मेघ इति व्यज्यते ॥
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ |
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क | रे | ण | वा | ता | य | न | ल | म्बि | ते | न |
स्पृ | ष्ट | स्त्व | या | च | ण्डि | कु | तू | ह | लि | न्या |
आ | मु | ञ | अ | च | ती | वा | भ | र | णं | द्वि | ती | य |
मु | द्भि | न्न | वि | द्यु | द्व | ल | यो | घ | न | स्ते |
त | त | ज | ग | ग |