इगुपध-
(अष्टाध्यायी ३.१.१३५ ) इत्यादिना कप्रत्ययः। गुणानां ज्ञो गुणज्ञः। रत्नाकरादिवर्ण्यैश्वर्यगुणाभिज्ञ इत्यर्थः। स रामाभिधानो हरिर्विष्णुः शब्दो गुणो यस्य तच्छब्दगुणमात्मनः स्वस्य पदं विष्णुपदम्। आकाशमित्यर्थः। वियद्विष्णुपदम्
इत्यमरः (अमरकोशः १.२.२ ) । शब्दगुणमाकाशम्
इति तार्किकाः। विमानेन पुष्पकेण विगाहमानः सन् रत्नाकरं वीक्ष्य मिथो रहसि। मिथोऽन्योन्यं रहस्यपि
इत्यमरः (अमरकोशः १.२.२ ) । जायां पत्नीं सीतामिति वक्षअयमाणप्रकारेणोवाच। रामस्य हरि
रित्यभिधानं निरङ्कुशमहिमद्योतनार्थम्। मिथो
ग्रहणं गोष्ठीविश्रम्भसूचनार्थम् ॥
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
अ | था | त्म | नः | श | ब्द | गु | णं | गु | ण | ज्ञः |
प | दं | वि | मा | ने | न | वि | गा | ह | मा | नः |
र | त्ना | क | रं | वी | क्ष्य | मि | थः | स | जा | यां |
रा | मा | भि | धा | नो | ह | रि | रि | त्यु | वा | च |