वृषः स्याद्वासवे धर्मे सौरभेये च शुक्रले। पुंराशिमेदयोः शृङ्ग्यां मूषकश्रेष्ठयोरपि॥
इति विश्वः। वृषं पुरुषमात्मार्थमिच्छतीति वृषस्यन्ती कामुकी। वृषस्यन्ती तु कामुकी
इत्यमरः (अमरकोशः २.६.९ ) । सुप आत्मनः क्यच्
(अष्टाध्यायी ३.१.८ ) इति क्यच्प्रत्ययः। अश्वक्षीरवृषलवणानामात्मप्रीतौ क्यचि (अष्टाध्यायी ७.१.५१ ) इत्यसुगागमः। ततो लटः शत्रादेशः। उगितशअच
(अष्टाध्यायी ४.१.६ ) इति ङीप्। श्लोकार्थस्तु-वृषस्कन्धो रामो वृषस्तन्तीं तां राक्षसीम् हे बाले! अहं कलत्रवान्, मे कनीयांसं कनिष्ठं भजस्व
इति शशासाः ज्ञापितवान् ॥
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वृ | ष | स्क | न्धः | श | शा | स | ताम् |