सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
यन्तेति॥ हरेरिन्द्रस्य यन्ता मातलिः सपदि संहृतकार्मुकज्यमनुष्ठितं देवकार्यं रावणवधरूपं येन तं राघवमापृच्छ्य साधु यामि
इत्यामन्त्र्य। नामाङ्कैर्नामाक्षरचिह्नै रावणशरैरङ्किता चिह्निता केतुयष्टिर्ध्वजदण्डो यस्य तम्। हरीणां वाजिनां सहस्रेण युज्यत इति हरिसहस्रयुक्। तम्। यमानिलेन्द्रचन्द्रार्कविष्णुसिंहांशुवाजिषु। हरिः
इत्युभयत्राप्यमरः। रथमूर्ध्वं निनाय नीतवान् ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
---|
य | न्ता | ह | रेः | स | प | दि | सं | हृ | त | का | र्मु | क | ज्य |
मा | पृ | च्छ्य | रा | घ | व | म | नु | ष्ठि | त | दे | व | का | र्यम् |
ना | मा | ङ्क | रा | व | ण | श | रा | ङ्कि | त | के | तु | य | ष्टि |
मू | र्ध्वं | र | थं | ह | रि | स | ह | स्र | यु | जं | नि | ना | य |
त | भ | ज | ज | ग | ग |