सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
निर्विष्टेति॥ स्नेहयन्ति प्रीणयन्ति पुरुषमिति स्नेहाः। पचाद्यच्। स्निह्यन्ति पुरुषा येष्विति वा स्नेहाः। अधिकरणार्थे घञन्। विषयाः शब्दादयस्त एव स्नेहाः निर्विष्टा भुक्ता विषयस्नेहा येन स तथोक्तः। निर्वेशो भृतिभोगयोः
इति विश्वः। दशा जीवनावस्था तस्या अन्तं वार्घकमुपेयिवान्। स दशरथः। उषसि प्रदीपार्चिरिव दीपज्वालेव। आसन्नं निर्वाणं मोक्षो यस्य स तथोक्त आसीत्। अर्चिःपक्षे तु- विषयो देश आश्रयः। भाजनमिति यावत्। विषयः स्यादिन्द्रियार्थे देशे जनपदेऽपि च
इति विश्वः। स्नेहस्तैलादिकरसे द्रवे स्यात्सौहृदेऽपि च
इति विश्वः। दशा वर्तिका। दशा वर्ताववस्थायाम्
इति विश्वः। निर्वाणैविनाशः। निर्वाणं निर्वृतौ मोक्षो विनाशे गजमज्जने
इति यादवः ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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नि | र्वि | ष्ट | वि | ष | य | स्ने | हः |
स | द | शा | न्त | मु | पे | यि | वान् |
आ | सी | दा | स | न्न | नि | र्वा | णः |
प्र | दी | पा | र्चि | रि | वो | ष | सि |