सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तस्मिन्निति॥ तस्मिन् भार्गवे गते सति विजयिनं रामं पिता स्नेहात् परिरभ्यालिङ्ग्य पुनर्जातमेवामन्यत। क्षणं शुग्यस्येति विग्रहः। क्षणशुचस्तस्य दशरथस्य परितोषलाभः संतोषप्राप्तिः। कक्षाग्निना दावानलेन। कक्षः शुष्ककाननवीरुधोः
इति विश्वः। लङ्घितस्याभइहतस्य तरोर्वृष्टिपात इव। अभवत् ॥
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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त | स्मि | न्ग | ते | वि | ज | यि | नं | प | रि | र | भ्य | रा | मं |
स्ने | हा | द | म | न्य | त | पि | ता | पु | न | रे | व | जा | तम् |
त | स्या | भ | व | त्क्ष | ण | शु | चः | प | रि | तो | ष | ला | भः |
क | क्षा | ग्नि | ल | ङ्घि | त | त | रो | रि | व | वृ | ष्टि | पा | तः |
त | भ | ज | ज | ग | ग |