भञ्जेश्च चिणि
(अष्टाध्यायी ६.४.३६ ) इति विभाषया नलोपः। तथा हि-नदीरयैः खातमूलमवदारितपादं तटद्रुमं मृदुरप्यनिलः पातयति। ततः शिशुरपि रौद्रं धनुरभाङ्क्षमिति मा गर्वीरिति भावः ॥
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वि | द्धि | चा | त्त | ब | ल | मो | ज | सा | ह | रे |
रै | श्व | रं | ध | नु | र | भा | जि | य | त्त्व | या |
खा | त | मू | ल | म | नि | लो | न | दी | र | यैः |
पा | त | य | त्य | पि | मृ | दु | स्त | ट | द्रु | मम् |
र | न | र | ल | ग |