सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तदिति॥ तत्तस्मात्, मदीयमिदमायुधं कार्मुकं ज्यया संगमय्य संयोज्य। ल्यपि लघुपूर्वात्
(अष्टाध्यायी ६.४.५६ ) इति णेरयादेशः। सशरं यथा तथा त्वया विकृष्यताम्। प्रधानं रणस्तिष्ठतु। प्रधानं तावदास्तामित्यर्थः। प्रधनं मारणे रणे
इति विश्वः। एवमपि मद्धनुःकर्षणेऽप्यहं तुल्यबाहुतरसा समबाहुबलेन। तरसी बलरंहसी
इत्यमरः। त्वया जितः ॥
छन्दः
रथोद्धता [११: रनरलग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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त | न्म | दी | य | मि | द | मा | यु | धं | ज्य | या |
सं | ग | म | य्य | स | श | रं | वि | कृ | ष्य | ताम् |
ति | ष्ठ | तु | प्र | ध | न | मे | व | म | प्य | हं |
तु | ल्य | बा | हु | त | र | सा | जि | त | स्त्व | या |
र | न | र | ल | ग |