सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
बिभ्रत इति॥ अचले क्रौञ्चादावप्यकुण्ठितमस्त्रं बिभ्रतो मम द्वौ समागसौ तुल्यापराधौ रिपू मतौ। धेनोः पितृहोमधेनोर्वत्सस्य हरणाद्धेतोर्हैहयः कार्तवीर्यश्च। कीर्तिमपहर्तुमुद्यत उद्युक्तस्त्वं च। वत्सहरणे भारतश्लोकः-प्रमत्तश्चाश्रमात्तस्य होमधेन्वास्ततो बलात्। जहार वत्सं क्रोशन्त्या बभञ्ज च महाद्रुमान् ॥
इति ॥
छन्दः
रथोद्धता [११: रनरलग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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बि | भ्र | तो | ऽस्त्र | म | च | ले | ऽप्य | कु | ण्ठि | तं |
द्वौ | रि | पू | म | म | म | तौ | स | मा | ग | सौ |
धे | नु | व | त्स | ह | र | णा | ञ्च | है | ह | य |
स्त्वं | च | की | र्ति | म | प | ह | र्तु | मु | द्य | तः |
र | न | र | ल | ग |