सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
यूपेति॥ यूपवति क्रियाविधौ कर्मानुष्ठाने। क्रतावित्यर्थः। अवसिते समाप्ते सति कालविदवसरज्ञः कुशिकवंशवर्धनः स मुनी रामम्। अस्यतेऽनेनेत्यसनम्, इषूणामसनमिष्वसनं चापम्। तस्य दर्शन उत्सुकं मैथिलाय जनकाय कथयांबभूव कथितवान् ॥
छन्दः
रथोद्धता [११: रनरलग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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यू | प | व | त्य | व | सि | ते | क्रि | या | वि | धौ |
का | ल | वि | त्कु | शि | क | वं | श | व | र्ध | नः |
रा | म | मि | ष्व | स | न | द | र्श | नो | त्सु | कं |
मै | थि | ला | य | क | थ | यां | ब | भू | व | सः |
र | न | र | ल | ग |