सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
ताविति॥ दिवः सुरवर्त्मन आकाशात्। द्यौः स्वर्गसुरवर्त्मनोः
इति विश्वः। गां भुवं गतौ। स्वर्गेषुपशुवाग्वज्रदिङ्नेत्रघृणिभूजले। लक्ष्यदृष्ट्या स्त्रियां पुंसि गौः
इत्यमरः। पुनर्वसू इव तन्नामकनक्षत्राधिदेवते इव स्थितौ। तौ राघवौ विलोचनैः पिबताम्। अत्यास्थया पश्यतामित्यर्थः। विदेहनगरी मिथिला। तन्निवासिनां मनः कर्तृ पक्ष्मपातं निमेषमपि तद्दर्शनप्रतिबन्धकत्वाद्वञ्जनां विडम्बनां मन्यते स्म मेने। लट् स्मे
(अष्टाध्यायी ३.२.११८ ) इति भूतार्थे लट् ॥
छन्दः
रथोद्धता [११: रनरलग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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तौ | वि | दे | ह | न | ग | री | नि | वा | सि | नां |
गां | ग | ता | वि | व | दि | वः | पु | न | र्व | सू |
म | न्य | ते | स | पि | ब | तां | वि | लो | च | नैः |
प | क्ष्म | पा | त | म | पि | व | ञ्च | नां | म | नः |
र | न | र | ल | ग |