सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
तीव्रेति॥ तीव्रवेगेन धुताः कम्पिता मार्गवृक्षा यया तथोक्तया। प्रेतचीवराणि वस्त इति प्रेतचीवरवाः तया प्रेतचीवरवसा। वसतेराच्छादनार्थात्क्विप्। स्वनेन सिंहनादेनोग्रया तया ताडकया। पितृकानने श्मशान उत्थोत्पन्ना। आतश्चोपसर्गे
(अष्टाध्यायी ३.३.१०६ ) इत्युत्पूर्वात्तिष्ठतेः कर्तरि क्तप्रत्ययः। तया वात्ययेव वातसमूहेनेव॥ पाशादिभ्यो यः
(अष्टाध्यायी ४.२.४९ ) इति यः। भरताग्रजो रामोऽभ्यभाव्यभिभूतः। कर्मणि लुङ्। तीव्रवेगेत्यादिविशेषणानि वात्यायामपि योज्यानि ॥
छन्दः
रथोद्धता [११: रनरलग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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ती | व्र | वे | ग | धु | त | मा | र्ग | वृ | क्ष | या |
प्रे | त | ची | व | र | व | सा | स्व | नो | ग्र | या |
अ | भ्य | भा | वि | भ | र | ता | ग्र | ज | स्त | या |
वा | त्य | ये | व | पि | तृ | का | न | नो | त्थ | या |
र | न | र | ल | ग |