सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
ज्येति॥ अथ तयोर्ज्यानिनादं गृह्णती जानती। शृण्वतीत्यर्थः। बहुलक्षपाछविः कृष्णपक्षरात्रिवर्णा। बहुलः कृष्णपक्षे च
इति विश्वः। चले कपाले एव कुण्डले यस्याः सा तथोक्ता ताडका। निबिडा सान्द्रा बलाकिनी बलाकावती। व्रीह्यादिभ्यश्च
(अष्टाध्यायी ५.२.११६ ) इतीनिः। कालिकेव घनावलीव। कालिका योगिनीभेदे कार्ष्ण्ये गौर्यां घनावलौ
इति विश्वः। प्रादुरास प्रादुर्बभूव॥
छन्दः
रथोद्धता [११: रनरलग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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ज्या | नि | ना | द | म | थ | गृ | ह्ण | ती | त | योः |
प्रा | दु | रा | स | ब | हु | ल | क्ष | पा | छ | विः |
ता | ड | का | च | ल | क | पा | ल | कु | ण्ड | ला |
का | लि | के | व | नि | बि | डा | ब | ला | कि | नी |
र | न | र | ल | ग |