सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
उद्यतेति॥ उद्यतोन्नमितैको भुज एव यष्टिर्यस्यास्ताम्। आयतीमायान्तीम्। इणो धातोः शतरि उगितश्च
(अष्टाध्यायी ४.१.६ ) इति ङीप्। श्रोणिलम्बिनी पुरुषाणामन्त्राण्येव मेखला यस्यास्ताम्। इति विशेषणद्वयेनाप्याततायित्वं सूचितम्। अत एव तां विलोक्य राघवो वनितावधे स्त्रीवधनिमित्ते घृणां जुगुप्सां करुणां वा। जुगुप्साकरुणे घृणे
इत्यमरः (अमरकोशः ३.३.५८ ) । पत्रिणेषुणा सह। पत्री रोप इषुर्द्वयोः
इत्यमरः (अमरकोशः ३.३.५८ ) । मुमोच मुक्तवान्। आततायिवधे मनुः(८।३५०)-आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। जिघांसन्तं जिघांसीयान्न तेन ब्रह्महा भवेत्॥ नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन।
इति ॥
छन्दः
रथोद्धता [११: रनरलग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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उ | द्य | तै | क | भु | ज | य | ष्टि | मा | य | तीं |
श्रो | णि | ल | म्बि | पु | रु | षा | न्त्र | मे | ख | लाम् |
तां | वि | लो | क्य | व | नि | ता | व | धे | घृ | णां |
प | त्रि | णा | स | ह | मु | मो | च | रा | घ | वः |
र | न | र | ल | ग |