सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
ताविति॥ अत्र रामायणवचनम्(बाल.२५।१२-१३)-अगस्त्यः परम कुद्धस्ताडकामभिशप्तवान्। पुरुषादी महायक्षी विकृता विकृतानना। इदं रूपमपाहाय दारुणं रूपमस्तु ते॥
इति। तदेतदाह-विदितशापयेति। कौशिकादाख्यातुः आख्यातोपयोगे
(अष्टाध्यायी १.४.२९ ) इत्यपादानात्पञ्चमी। विदितशापया सुकेतुसुतया ताडकया खिलीकृते पथि। खिलमप्रहतं स्थानम्
इति हलायुधः। तौ रामलक्ष्मणौ। स्थले निवेशिते अटनी धनुःकोटी याभ्यां तौ तथोक्तौ। कोटिरस्याटनिः
इत्यमरः (अमरकोशः २.८.८४ ) । लीलयैव धनुषी। अधिकृते ज्ये मौर्व्यौ ययोस्ते अधिज्ये। ज्या मौर्वीमातृभूमिषु
इति विश्वः। तयोर्भावस्तत्तामधिज्यतां निन्यतुर्नीतवन्तौ। नयतिर्द्विकर्मकः ॥
छन्दः
रथोद्धता [११: रनरलग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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तौ | सु | के | तु | सु | त | या | खि | ली | कृ | ते |
कौ | शि | का | द्वि | दि | त | शा | प | या | प | थि |
नि | न्य | तुः | स्थ | ल | नि | वे | शि | ता | ट | नी |
ली | ल | यै | व | ध | नु | षी | अ | धि | ज्य | ताम् |
र | न | र | ल | ग |