दिव
शब्दोऽदन्तोऽप्यस्ति। तथा च बुद्धचरिते-न शोभते तेन हि नो विना पुरं मरुत्वता वृत्रवधे यथा दिवम्
इति । तत्र दिवु क्रीडादौ
इति धातोः इगुपध-
(अष्टाध्यायी ३.१.१३५ ) इति कः। दिवमोक एषामिति विग्रहः। भोगिनः शेषस्य भोगः शरीरम्। भोगः सुखे स्त्र्यादिभृतावहेश्च फणकाययोः।
इत्यमरः (अमरकोशः ३.३.२८ ) । स एवासनं सिंहासनम्। तत्रासीनमुपविष्टम्। आसोः शानच्। ईदासः
(अष्टाध्यायी ७.२.८३ ) इतीकारादेशः। तस्य भोगिनः फणामण्डले य उदर्चिष उद्रश्मयो मणयस्तैर्द्योतितविग्रहं तं विष्णुं ददृशुः ॥
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