सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
ताभिरिति॥ ताभिः कौसल्यादिभिः प्रजानां भूत्या अभ्युदयाय। देवस्य विष्णोरंशः संभवः कारणं यस्य स गर्भः। सूर्यस्येमाः सौर्यः, ताभिः सौरीभिः। सूर्यतिष्य-
(६।४।१४९)इत्युपधायकारस्य लोपः। अमृता इत्याख्या यासां ताभिः। जलवहनसाम्यान्नाडीभिरिव। नाडीभिर्वृष्टिविसर्जनीभिर्दीधितिभिः। अपां विकारोऽम्मयो जलमयो गर्भ इव। दध्रे धृतः। जातावेकवचनम्। गर्भा दधिर इत्यर्थः। अत्र यादवः-तासां शतानि चत्वारि रश्मीनां वृष्टिसर्जने। शतत्रयं हिमोत्सर्गे तावद्गर्भस्य सर्जने॥ आनन्दाश्च हे मेध्याश्च नूतनाः पूतना इति। चतुःशतं वृष्टिवाहास्ताः सर्वा अमृताः स्त्रियः॥
इति॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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ता | भि | र्ग | र्भः | प्र | जा | भू | त्यै |
द | ध्रे | दे | वां | श | सं | भ | वः |
सौ | री | भि | रि | व | ना | डी | भि |
र | मृ | ता | ख्या | भि | र | म्म | यः |