नित्यं सपत्न्यादिषु
(अष्टाध्यायी ४.१.३५ ) इति ङीप्। नकारादेशश्च। भ्रमरी भृङ्गाङ्गना वारणस्य गजस्य मदनिस्यन्दरेखयोरिव गण्डद्वयगतयोरिति भावः। प्रणयवती प्रेमवत्यासीत्। सपत्न्योः
इत्यत्र समासान्तर्गतस्य पत्युरुपमानं वारणस्य
इति ॥
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सा | हि | प्र | ण | य | व | त्या | सी | |
त्स | प | त | न्यो | रु | भ | यो | र | पि |
भ्र | म | री | वा | र | ण | स्ये | व | |
म | द | नि | स्य | न्द | रे | ख | योः |