प्राजापत्यं नरं विद्धिमामिहाभ्यागतं नृप!
(बाल.१६।१६) इति रामायणात्। तदन्नं पायसान्नम्। उदन्वतोदधिनाऽऽविष्कृतं प्रकाशितं पयसां सारममृतं वृषा वासव इव। वासवो वृत्रहा वृषा
इत्यमरः (अमरकोशः १.१.५३ ) । प्रत्यग्रहीत् स्वीचकार ॥
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प्रा | जा | प | त्यो | प | नी | तं | त |
द | न्नं | प्र | त्य | ग्र | ही | न्नृ | पः |
वृ | षे | व | प | य | सां | सा | र |
मा | वि | ष्कृ | त | मु | द | न्व | ता |