सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
शब्देति॥ किंच, कृष्णादिरूपेण शब्दादीन्विषयान्भोक्तुम्। नरनारायणादिरूपेण दुश्चरं तपश्चरितुम्। तथा दैत्यमर्दनेन प्रजाः पातुम्। औदासीन्येन ताटस्थ्येन वर्तितुं च पर्याप्तः समर्थोऽसि। भोग-तपसोः पालनौ-दासीन्ययोश्च परल्परविरुद्धयोराचरणे त्वरन्यः कः समर्थ इत्यर्थः ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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श | ब्दा | दी | न्वि | ष | या | न्भो | क्तुं |
च | रि | तुं | दु | श्च | रं | त | पः |
प | र्या | प्तो | ऽसि | प्र | जाः | पा | तु |
मौ | दा | सी | न्ये | न | व | र्ति | तुम् |