अन्येष्वपि दृश्यते
(अष्टाध्यायी ३.२.१०१ ) इति डप्रत्ययः। तस्याजस्य जन्मशून्यस्यापि जन्म गृह्णतः मत्स्यादिरूपेण जायमानस्य। निरीहस्य चेष्टारहितस्यापि हतद्विषः शत्रुघातिनो जागरूकस्य सर्वसाक्षितया नित्यप्रबुद्धस्यापि स्वपतो योगनिद्रामनुभवतः। इत्थं विरुद्धचेष्टस्य तव याथार्थअयं को वेद वेत्ति? विदो लटो वा
(अष्टाध्यायी ३.४.८४ ) इति णलादेशः ॥
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अ | ज | स्य | गृ | ह्ण | तो | ज | न्म |
नि | री | ह | स्य | ह | त | द्वि | पः |
स्व | प | तो | जा | ग | रू | क | स्य |
या | था | र्थ्यं | वे | द | क | स्त | व |