इगुपध-
(अष्टाध्यायी ३.१.१३५ ) इति कप्रक्ययः। अविज्ञातः। न केनापि विज्ञात इत्यर्थः। त्वं सर्वस्य योनिः कारणम्। त्वमात्मन एव भवतीत्यात्मभूः। न ते किंचित्कारणमस्तीत्यर्थः। त्वं सर्वस्य प्रभुः। त्वमनीशः। त्वमेकः सर्वरूपभाक्। त्वमेक एव सर्वात्मना वर्तस इत्यर्थः ॥
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स | र्व | ज्ञ | स्त्व | म | वि | ज्ञा | तः |
स | र्व | यो | नि | स्त्व | मा | त्म | भूः |
स | र्व | प्र | भु | र | नी | श | स्त्व |
मे | क | स्त्वं | स | र्व | रू | प | भाक् |