सञ्जीविनीटीका (मल्लिनाथः)
हृदयेति॥ हे देव! त्वां हृदयस्थं सर्वान्तर्यामितया नित्यसंनिहितं तथाप्यनासन्नमगम्यरूपत्वाद्विप्रकृष्टं च विदुः। संनिकृष्टस्यापि विप्रकृष्टत्वमिति विरोधः। त्तथाऽकामम्। न कामोऽभिलाषोऽस्य तं परिपूर्णत्वान्निःस्पृहत्वाञ्च निष्कामम् । तथापि तपस्विनं तापसं विदुः। यो निष्क्रामः स कथं तपः कुरुत इति विरोधः। परिहारस्तु-ऋषिरूपेण दुस्तरं तपस्तप्यते। दयालुं परदुःखप्रहाणपरं तथाप्यनधस्पृष्टं नित्यानन्दस्वरूपत्वाददुःखिनं विदुः। अघं दुरितदुःखयोः
इति विश्वः। दयालुरदुःखी चेति विरोधः। ईर्ष्यी घृणी त्वसंतुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः। परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःखिताः॥
इति महाभारते। पुराणमनादि मजरं निर्विकारत्वादक्षरं विदुः। चिरंतनं न जीर्यत इति विरोधालंकारः। उक्तं च -आभासत्वे विरोधस्य विरोधालंकृतिर्मता
इति। विरोधेन चालौकिकमहिमत्वं व्यज्यते ॥
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
---|
हृ | द | य | स्थ | म | ना | स | न्न |
म | का | मं | त्वां | त | प | स्वि | नम् |
द | या | लु | म | न | घ | स्पृ | ष्टं |
पु | रा | ण | म | ज | रं | वि | दुः |